जानी मानी वरिष्ठ पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के बाद से ही वामपंथियों और सेक्युलर मीडिया के एक वर्ग को मोदी सरकार पर हमलावार होने का अवसर दे दिया है. हर कोई चाहे वो रविश हो या राणा अय्यूब इन् पत्रकारों के जैसे लग रहा है की ये हत्या मोदी ने ही करवाई है. हालाँकि की इन् पत्रकारों को मुहतोड़ जवाब देने का काम राष्ट्रवादी पत्रकार रोहित सरदाना ने किया है. उन्होंने अपने फेसबुक पेज पर एक पोस्ट प्रकाशित की है जिसमे उन्होंने ने सवाल उठाया है की हत्या तोह कर्नाटक में हुई है जहा पर कांग्रेस पार्टी की सरकार है फिर भी लोग मोदी सरकार से सवाल क्यो पूछ रहे है. हम सब को एक बार के पोस्ट जरूर पढ़नी चाहिए और इससे शेयर करना चाहिए.
बंगलुरु में ‘वामपंथी झुकाव’ वाली एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी. मिनटों में ये ख़बर आग की तरह फैली और पत्रकार के वैचारिक आकाओं ने फ़ैसला सुना दिया कि पनसारे, दाभोलकर की तरह कट्टर हिंदूवादी संगठनों ने हत्या की क्योंकि पत्रकार कट्टर हिंदूवाद की विरोधी थी.
पत्रकार के अपने आख़री ट्वीट्स साफ़ इशारा करते हैं कि जिस भी संगठन से उनका वैचारिक प्रेम रहा है, उसके साथ उनके सम्बंध अच्छे नहीं चल रहे थे. कॉमरेड्ज़ को आपस में लड़ने की बजाय असली दुश्मन से लड़ने की नसीहत इन ट्वीट्स में दी गयी थी. शायद ऐसी ही साज़िश पे ध्यान ना जाए, इस लिए बड़े कॉमरेड्ज़ ने बिना वक़्त गँवाए हिंदूवादी संगठनों का शिगूफ़ा छोड़ दिया.
हेमंत यादव, राजदेव रंजन, संजय पाठक, ब्रजेश कुमार जैसे पत्रकारों ने पहले भी जान गँवाई है- वैचारिक झंडाबरदारी करते हुवे नहीं, ख़बरों के पीछे भागते हुवे. लेकिन अफ़सोस, उनके लिए ना तो राजनीतिक पार्टियों को शर्मिंदगी हुई ना ही उनकी क़ौम के कथित ठेकेदार पत्रकारों को जो गौरी लंकेश की शव यात्रा में ट्विटर और फ़ेसबुक पे ही शामिल हो कर लाइक्स और रीट्वीट्स कमाने की जुगत में लगे हैं.
कर्नाटक में सरकार सिद्धरमैया की है. लेकिन क़ानून व्यवस्था के लिए जिम्मेदार वो नहीं हैं. हिंदूवादी संगठनों के नाम ठीकरा फोड़ कर और प्रधानमंत्री से जवाब माँग कर, सिद्धरमैया को इशारा दे दिया गया है कि आपका इस्तीफ़ा नहीं माँगेंगे, बशर्ते आप जाँच कॉमरेड्ज़ की आपसी खींचतान की ओर ना ले जाएँ. वैसे एक ख़बर ये भी है कि वो सिद्धरमैय्या की सरकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ ही ख़बर पर काम कर रही थी.
गौरी लंकेश का अपने भाई से भी विवाद था. मामला थाने तक जा चुका था. बीजेपी के एक नेता की शिकायत पर उनके ख़िलाफ़ मानहानि के मामले में वो ज़मानत पर थी. जाति व्यवस्था और एक सूफ़ी दरगाह के मामले में हिंदूवादी संगठनों से उनका टकराव भी हुआ.
लेकिन ये सारी बातें तब बेमानी हो जाती हैं जब मौत के आधे घंटे में कुछ लोग ये तय कर देते हैं कि हत्या किसने की और किस लिये की.
क़ायदे से तो जाँच शुरू ही उन लोगों से होनी चाहिए जो हत्या के आधे घंटे के भीतर बैनर/पोस्टर छपवा चुके थे और एक सुर, एक ताल, एक लय में सोशल मीडिया के ज़रिए अपनी वैचारिक लड़ाई पे पर्दा डाल कर मामले का भगवाकरण करने में जुट गए थे.